सारे धर्म अच्छी शिक्षाएँ देते हैं। सब, एक ही शाश्वत शक्ति की बात करते हैं चाहे उसके नाम अलग ही हों; यानी—ईश्वर, ख़ुदा, अल्लाह, गॉड आदि। सारे धर्मों की मंज़िल एक ही है चाहे रास्ते अलग-अलग हों। इस तरह सारे धर्म ‘सत्य’ हैं, समान हैं। फिर इस्लाम को ही ‘सत्य धर्म’ क्यों माने ?
● इस्लाम धर्म कहता है कि पूज्य, उपास्य केवल ‘एक ईश्वर’ है और दूसरा धर्म कहे कि नहीं, दो उपास्य और भी हैं।
पूज्य-उपास्य होने में ‘एक’ और ‘तीन’ तक ही बात सीमित न रह जाए बल्कि कोई तीसरा धर्म कहे कि पूज्य-उपास्य तो सैकड़ों, हज़ारों, लाखों, करोड़ों हैं।
● इस्लाम धर्म कहता है ईश्वर न किसी की संतान है न उसके कोई संतान है। दूसरा धर्म कहे कि ईश्वर के एक ‘बेटा’ भी है। बेटा होने के नाते वह ईश्वरत्व में ईश्वर का साझी-शरीक है जबकि इस्लाम धर्म कहे कि ईश्वर के ईश्वरत्व में कोई साझी-शरीक है ही नहीं।
● इस्लाम धर्म कहता है ईशपरायण जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति मरने के बाद स्वर्ग में जाएगा और विपरीत चरित्र का आदमी नरक में। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, अमुक शख़्सियत को ‘ईश्वर का पुत्र’ मान लेने से ही आदमी स्वर्ग में चला जाएगा चाहे उसने कितने ही पाप, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार किए हों।
● इस्लाम धर्म कहता है ‘पूज्य’ केवल ईश्वर है, उसके अतिरिक्त और कोई नहीं, कदापि नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, माता-पिता भी पूज्य हैं, गुरु भी पूज्य, पशु भी पूज्य, नदी, पहाड़, वृक्ष, साँप भी पूज्य, और ऋषि, मुनि, महापुरुष, धर्माचार्य...सारे पूज्य हैं।
●इस्लाम धर्म कहता है पुरुष किसी पराई स्त्री (जो पत्नी न हो) के शरीर को भी (यौन-वासना से) स्पर्ष करे तो वह परलोक में नरक की यातना व प्रताड़ना झेलेगा। दूसरा धर्म कहे कि दम्पत्ति को पुत्र न होता हो तो पति अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरुष के पास भेज सकता है जिससे उसकी पत्नी ‘गर्भधारण’ तक संभोग (‘नियोग’) करे। इसे सामाजिक व नैतिक मान्यता भी प्राप्त होगी।
● इस्लाम धर्म कहता है शराब, जुआ को अवैध व वर्जित करे; दूसरे धर्मों में जुआ, शराब वैध हों।
● इस्लाम धर्म कहता है ईश्वर निराकार है। वह कभी भी, किसी कारण भी, किसी उद्देश्य से भी किसी भी प्रकार का आकार व शरीर धारण नहीं करता; मनुष्यों को मार्गदर्शन के लिए वह मनुष्यों में से ही किसी उचित व्यक्ति को चुन कर और उनके मार्गदर्शन के लिए माध्यम-स्वरूप उसे अपना सन्देष्टा, दूत (पैग़म्बर, रसूल, नबी) नियुक्त करता रहा है। दूसरा धर्म कहे कि वह सन्देष्टा, दूत, महापुरुष (ऋषि), साकार रूप में ‘स्वयं ईश्वर’ होता है जो मानव शरीर धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होता रहा है। इसके अलावा अनेक अन्य जीवधारियों का शरीर धारण करके भी अवतरित होता रहा है।
● एक धर्म कहे कि मृत्यु-पश्चात् स्वर्ग नरक भी है और पुनर्जन्म व आवागमन भी (जबकि दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी भी हों), इस्लाम धर्म कहता है नहीं, मृत्यु के पश्चात् (पुनर्जन्म नहीं) केवल पुनरुज्जीवन होगा। परलोक में यह ‘पुनःजीवन’ या तो स्वर्ग में बीतेगा या नरक में।
● इस्लाम धर्म कहता है सारे मनुष्य, मनुष्य की हैसियत में बराबर हैं, उनमें कोई भी जन्मजात ऊँचा-नीचा, श्रेष्ठ-तुच्छ नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, मनुष्यों में जन्मजात (नस्ली) ऊँच-नीच है, यह कभी समाप्त नहीं होता।
● इस्लाम धर्म कहता है उसका मूलग्रंथ शुद्ध एवं पूर्णरूपेण ईश्वरीय ग्रंथ है, दूसरा धर्म कहे कि उसका ग्रंथ मानव-कृत, मानवीय हस्तक्षेप और संशोधन-परिवर्तन से रहित नहीं है फिर भी वह ‘ईश-वाणी’, ईशग्रंथ ही है। तीसरा धर्म कहे कि उसके ग्रंथ के ईशग्रंथ होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। कौन-सा/कौन से ग्रंथ धर्म के मूलग्रंथ हैं यह भी सर्वमान्य रूप से निश्चित नहीं। और वस्तुस्थिति यह हो कि सभों में परस्पर भी विरोधाभास है और उनमें से प्रमुख ग्रंथों में आंतरिक विरोधाभास भी।
● इस्लाम धर्म कहता है कि पूज्य, उपास्य केवल ‘एक ईश्वर’ है और दूसरा धर्म कहे कि नहीं, दो उपास्य और भी हैं।
पूज्य-उपास्य होने में ‘एक’ और ‘तीन’ तक ही बात सीमित न रह जाए बल्कि कोई तीसरा धर्म कहे कि पूज्य-उपास्य तो सैकड़ों, हज़ारों, लाखों, करोड़ों हैं।
● इस्लाम धर्म कहता है ईश्वर न किसी की संतान है न उसके कोई संतान है। दूसरा धर्म कहे कि ईश्वर के एक ‘बेटा’ भी है। बेटा होने के नाते वह ईश्वरत्व में ईश्वर का साझी-शरीक है जबकि इस्लाम धर्म कहे कि ईश्वर के ईश्वरत्व में कोई साझी-शरीक है ही नहीं।
● इस्लाम धर्म कहता है ईशपरायण जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति मरने के बाद स्वर्ग में जाएगा और विपरीत चरित्र का आदमी नरक में। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, अमुक शख़्सियत को ‘ईश्वर का पुत्र’ मान लेने से ही आदमी स्वर्ग में चला जाएगा चाहे उसने कितने ही पाप, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार किए हों।
● इस्लाम धर्म कहता है ‘पूज्य’ केवल ईश्वर है, उसके अतिरिक्त और कोई नहीं, कदापि नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, माता-पिता भी पूज्य हैं, गुरु भी पूज्य, पशु भी पूज्य, नदी, पहाड़, वृक्ष, साँप भी पूज्य, और ऋषि, मुनि, महापुरुष, धर्माचार्य...सारे पूज्य हैं।
●इस्लाम धर्म कहता है पुरुष किसी पराई स्त्री (जो पत्नी न हो) के शरीर को भी (यौन-वासना से) स्पर्ष करे तो वह परलोक में नरक की यातना व प्रताड़ना झेलेगा। दूसरा धर्म कहे कि दम्पत्ति को पुत्र न होता हो तो पति अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरुष के पास भेज सकता है जिससे उसकी पत्नी ‘गर्भधारण’ तक संभोग (‘नियोग’) करे। इसे सामाजिक व नैतिक मान्यता भी प्राप्त होगी।
● इस्लाम धर्म कहता है शराब, जुआ को अवैध व वर्जित करे; दूसरे धर्मों में जुआ, शराब वैध हों।
● इस्लाम धर्म कहता है ईश्वर निराकार है। वह कभी भी, किसी कारण भी, किसी उद्देश्य से भी किसी भी प्रकार का आकार व शरीर धारण नहीं करता; मनुष्यों को मार्गदर्शन के लिए वह मनुष्यों में से ही किसी उचित व्यक्ति को चुन कर और उनके मार्गदर्शन के लिए माध्यम-स्वरूप उसे अपना सन्देष्टा, दूत (पैग़म्बर, रसूल, नबी) नियुक्त करता रहा है। दूसरा धर्म कहे कि वह सन्देष्टा, दूत, महापुरुष (ऋषि), साकार रूप में ‘स्वयं ईश्वर’ होता है जो मानव शरीर धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होता रहा है। इसके अलावा अनेक अन्य जीवधारियों का शरीर धारण करके भी अवतरित होता रहा है।
● एक धर्म कहे कि मृत्यु-पश्चात् स्वर्ग नरक भी है और पुनर्जन्म व आवागमन भी (जबकि दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी भी हों), इस्लाम धर्म कहता है नहीं, मृत्यु के पश्चात् (पुनर्जन्म नहीं) केवल पुनरुज्जीवन होगा। परलोक में यह ‘पुनःजीवन’ या तो स्वर्ग में बीतेगा या नरक में।
● इस्लाम धर्म कहता है सारे मनुष्य, मनुष्य की हैसियत में बराबर हैं, उनमें कोई भी जन्मजात ऊँचा-नीचा, श्रेष्ठ-तुच्छ नहीं। दूसरा धर्म कहे कि नहीं, मनुष्यों में जन्मजात (नस्ली) ऊँच-नीच है, यह कभी समाप्त नहीं होता।
● इस्लाम धर्म कहता है उसका मूलग्रंथ शुद्ध एवं पूर्णरूपेण ईश्वरीय ग्रंथ है, दूसरा धर्म कहे कि उसका ग्रंथ मानव-कृत, मानवीय हस्तक्षेप और संशोधन-परिवर्तन से रहित नहीं है फिर भी वह ‘ईश-वाणी’, ईशग्रंथ ही है। तीसरा धर्म कहे कि उसके ग्रंथ के ईशग्रंथ होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। कौन-सा/कौन से ग्रंथ धर्म के मूलग्रंथ हैं यह भी सर्वमान्य रूप से निश्चित नहीं। और वस्तुस्थिति यह हो कि सभों में परस्पर भी विरोधाभास है और उनमें से प्रमुख ग्रंथों में आंतरिक विरोधाभास भी।
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